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सतगुरु स्वामी प्रीतमदास जी महाराज

मान्यवर, जैसा कि आप जानते हैं कि परम पूज्यनीय ब्रह्मलीन सतगुरु स्वामी प्रीत्तमदास जी ने समाज कल्याण के लिए कार्यं दिव्य, जब हमारे समाज की अपनी कोई धर्मशाला भी नहीं थी उस वक्त सन् 1 9 6 8 में सर्वप्रथम स्वामी जी ने आगे बढ़कर, समाज को जोड़कर एक धर्मशाला की नींव रखी, यहाँ से शुरु होकर सन् 1 9 9 2 – 9 4 में समाज के गरीब बच्चो को शिक्षा मिले तो स्वामीजी ने खातीवाना टैंक में एक स्कूल का निर्माण क्रिया । समाज के बच्चो की उच्च शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए वर्ष 2 0 0 0 में खंडवा रोड पर 3.5 एकड़ जमीन लेकर हायर सेकंडरी स्कूल की स्थापना की, स्वामीजी की स्कूल बिल्डिंग में ही कॉलेज खोलने की इच्छा थी तथा इस हेतु कनेटी के सदस्यों को आगे बढ़ने की आज्ञा भी दी लेकिन अचानक सम् 2006 में स्वामी जी नेनश्वर संसार को छोड़का बैबुंउhomework writers topic cause and effect धाम को प्रस्थान क्रिया । समाज कल्याण की इच्छा लेकर स्वामी जी सदैव तत्पर रहते थे । इसी तारतम्य में स्वामी जी के आदशों को लेकर जो सेवाधारी बाबाजी के साथ सेवा रहते थे उन्होंने मिलकर यह संकल्प लिया कि समाजकल्याण का कोई स्थायी कार्य किया जाये, इस हेतु सभी सेवाधारियों ने मिलका सम् 2 0 0 8 में ‘ ‘स्वामी प्रीतमदास गोक्रिचपाम पात्मापिकि संस्थान” के नाम से एक संस्था पंजीकृत करवाई.

स्वामी जी के पोद्यामारियों ने इंदौर में पाई, उठावना, सामाजिक, पारमार्थिक इत्यादि उद्योगों की पूर्ति हेतु शहर के मध्य उचित स्थान की कमी को महसूस किया एवं यह निश्चय किया कि इस कमी को शीघ्र पूर्ण करना समाज हित में एक महायज्ञ होगा । वर्ष 2 0 1 2 में इंदौर नगर निगम के महापौर श्री कृष्ण मुरारी मोघे द्वारा प्रकल्प ‘ ‘आओ बनाएं अपना इंदौर” योजना के अन्तर्गत साधू वासवानी नगर (सिन्धी कॉलोनी), इन्दौर में एक भव्य (आत्याधुनिया सभागृह का निर्माण करने का संकल्प लिया जिसे समाज के विभिन्न वर्गों के सहयोग से पूर्ण करने की परिकल्पना की गई एवं 1 4 जनवरी 2 0 1 2 को इस कमान पर प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री माननीय शिवराज सिंह जी चौहान के यजमानों से भूमि पूजन सम्पन्न किया|

स्वामी प्रीतमदासजी : एक रूहानी शख्सियत भस्मास्था, स्वामीजी सानिध्य में के एक झलक राम-नाम बैंक राम दरबार लगी हुई है। स्वामीजी भगवान रामचन्द्र सन् १९९० में गुरु नानक जयन्ति के दिन स्वामीजी ने । सर्वाधिक रामनाम बैंक की स्थापना की। आमश्रद्धालुगण अधिक से रुप में विराजमान हैंरामनाम लिखने वाले थियारों वाली ।राम अधिक संख्या में लिखें इस हेतु प्रतिवर्ष प्रतियोगिता रखने की घोषणा होने हैश्रद्धालुगण भगवान (स्वामीजी) की बनाई ।ने घोषणा कि सर्वाधिक की से योजना गईस्वामीजी की के निर्णयों उत्सुकता प्रतीक्षा कर रहे हैं संख्या रामनाम लिखने वालों को रामचन्द्रजी में -जन्मोत्सव पर पुरस्कृत का हिसाब (स्वामीजी) बैंक किताव संभालने वाले किया जाएगा१७ जनवरी १९९१ से के प्रथम, । प्रत्येक शहर सेवक (सेवाधारी नंदकुंमार बानहानी) को आता देते हैं कि द्वितीय व तृतीय प्रतियोगी को प्रतिवर्ष जन्मोत्सव पर पुरस्कार सर्वाधिक संख्या में रामराम लिखने वाले मेरे प्यारों के नाम प्रदान किया जाने लगा। बच्चों में एक नई सी उमंग उगी । प्रतिवर्ष देश में कई पुकारे जाएँ व उसके बाद पूरा लेखा-जोखा प्रजा (संगत) के। शहरों से लाखों संख्या रामनाम रखा जाए। सेवक प्रस्तुत है व की में लोग लिखकर आने सामने आज्ञा पाकर होता एक ठगे । ऐसेऐसे भी उदाहरण सामने आए कि जो ५०-६ एक कर नाम पुकारता है । नाम पुकारे जाने पर भगवान के वर्ष की आयु पार कर चुके हैं व जिन्हें क , ख ग का भी ज्ञान प्यारे भगवान रामचन्द्रजी (स्वामीजी) का आशीर्वाद पाने या नहीं था उन्होने ‘रा’ ‘म’ शब्द लिखना सीखकर हजारों की पुरस्कार ग्रहण करने आते हैं। आसमान में ढोल ढमाको संख्या में राम-नाम टिखा व हमें कापियों पहुंचाई कुछ की राममय आवाज गूंजती है, देवगण पुष्पों की वर्षा से लोगों ने रामनाम लिखना न आने के कारण कैसेट में अपनी चारों ओर कृपा की बारिश करते है ।

स्थूल देहरूप में अवतरति स्वामी प्रीतमदासजी जैसे परमात्म पुरुष को कोई भाग्यशाली ही पहचान पाते हैं। लोग परमात्मा को ढूंढते हैं और परमात्मा उन आंखों से कहीं नजर । नहीं आता क्योंकि वह ओझल है । निराश मनुष्य फिर क्या करे उस अलख को कैसे जाने ? कैसे देखें : कबीरजी ने इस पहेली का सुन्दर हल पेश करते हुए कहा है। अलख पुरुष की आरसी साधु का ही देह। लखा जो चाहे अलख को इन्हीं में लू लख लेह ॥ हे मानव यदि तुझे अठख को लखना हो, जो जानने से परे है उसे जानना हो, जो देखने से परे है उसे देखना हो, तो तू ऐसे किसी संत महापुरुष को देख ले, क्योंकि उन्हीं में वह अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रकट हुआ है। ऐसे महापुरुष हमारे गुरुजी श्रढेय स्वामी प्रीतमदासजी जो मानव के लिए विशाल वट वृक्ष हैं, सीतल जल के झरने हैं। उनकी पावन देह को स्पर्श करके आनेवाली हवा भी जीव के || जन्म-जन्मांतरों की थकान को उतार कर उसके हृदय को आत्मिक शीतलता से भर देती है। | मेरी ससुराल इन्दौर की सिंधी कॉलोनी में होने से जब भी ऐसे श्रदूय स्वामीजी को १९८० से जानता हूं क्योंकि इन्दौर जाता था तब स्वामीजी की कई कल्याणकारी एवं आशीषभरी दिनचर्या की बातें सुनकर मन प्रसन्न हो जाता था। तथा उनके दर्शन करने के लिए मन में लालसा उत्पन्न होती थी। कई बार गोबिंदधाम में जाकर स्वामीजी के दर्शन कर जेसा सुना था उसी अनुरुप में मैंने स्वामीजी को पाया। वर्ष १९९२ में इन्दौर में मनाये जाने वाले स्वामीजी के ६८ वें जन्मोत्सव में मैं पहली बार तीन दिन तक समस्त कार्यक्रमों में सम्मिलित हुआ। उस समय मेरी उम्र लगभग ५२ वर्ष की थी । वहां का वातावरण देखकर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इन ५२ वर्षों में मैंने इसके पूर्व ऐसा महापुरुष नहीं देखा जिसका जन्मोत्सव मनाने के लिए समस्त प्राणी, बच्चे, जवान, वृद्ध इस प्रकार से मन में सेवा का भाव संजोये हुए कार्य कर रहे थे मानों परमपिता परमेश्वर इस सांसारिक मृत्युलोक में पधारे। हैं स्वामीजी के रुप में जन्मोत्सव मनाया जा रहा हो। उस वर्ष से निरन्तर में परिवार सहित स्वामीजी के प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले जन्मोत्सव में भाग लेता रहा है।
An honest, hearty welcome to a
ggest works miracles with the fair and
is capable of turning the coarsest food
tonectar and ambrosia

-अतिथि के सच्चे और हार्दिक स्वागत में वह शक्ति है कि जो साधारण से साधारण भोजन को, अमृत और देवताओं का भोजन बना देती है। हमारी संस्कृति अतिथि देवो भव: की है, अतिथि देवता, अतिथि भोजन करने नहीं पुण्य देने आता है।स्वामीजी के गुण से यह संस्कृति स्पष्ट होती है जन्मोत्सव की ३ दिन की अवधि में स्वामीजी द्वारा बाहर से अलग-अलग शहरों से आए उनके भक्तों को जिन जिन स्थानों पर ठहराया जाता है उनका
किस प्रकार स्वामीजी द्वारा स्वयं आदर सत्कार अर्थात् उनके । स्टेशन अथवा बस स्टेन्ड से लानेउनके सोने, ठहरने, चाय नाश्ते एवं भोजन से लेकर वापस उनकी बिदाई आदि का अवलोकन उनके द्वारा स्वयं किया जाता है। यह अपने आप में अनुकरणीय सेवा है जिसका उदाहरण अन्यत्र देखने सुनने को नहीं मिलता है। तालाब में रहने वाला मेंढक कमल की खुशबू से अनजान ही बना रहता , किन्तु भंवरा दूर रहते हुए भी पुष्पों की सुगंध जान लेता है । हमारे स्वामीजी भी उस पुष्प की भांति हैं। जिनकी सुगंध देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में भी महक रही है। इसका उदाहरण वर्ष १९९५ में ७१ वें जन्मोत्सव के समय पूना (पिंपरीमें देखने को मिला। पिंपरी में उस समय स्वामीजी की शोभा यात्रा निकल रही थी। उस समय स्वामीजी की ख्याति एवं पुष्प रुपी सुगंध से स्वामीजी के भक्त गण ही नहीं बल्कि पिंपरी व आसपास का समस्त सिंधी समाज एवं स्थानीय जनता ने विशाल शोभा यात्रा में शामिल होकर स्वामीजी का नत मस्तक होकर स्वागत किया। यहां तक कि जिस रास्ते से स्वामीजी की शोभा यात्रा निकल रही थी उस रास्त की समस्त जनता द्वारा अपना अपना कारोबार बन्द करके स्वामीजी की शोभा यात्रा पर पुष्पों की वर्षा कर उनका अपार स्वागत किया । शोभा यात्रा में चल रहे भक्तगणों का (जलपान एवं प्रसाद आदि से स्वागत भी किया गया ।

कई लोगों से तो यह कहते सुना गया कि हमारे जीवन में हमने पिंपरी में इतनी विशाल एवं इस रुप में कभी भी ऐसी शोभा यात्रा नहीं देखी है जो हम आज देख रहे हैं। किसी भी प्रकार के फल की आकांक्षा न रखते हुए सेवा करना यह सर्वोतम साधना है इसका उदाहरण पिंपरी की जनता ने स्वामीजी की शोभा यात्रा में प्रस्तुत कर स्वामीजी के प्रति श्रद्धा का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। स्वामीजी के जन्मोत्सव के दिनों में जो सत्संग होता है उसमें अमृत रूपी गुरवाणी का श्रवण करवा कर गुरु ग्रंथ साहिब का परोपकारी संदेश एवं अन्य संत महात्माओं के प्रवचनों का लाभ जो जनता को दिया जाता है उससे मानव जीवन को सुख प्राप्त होता है । कहते हैं कि ईश्वर पृथ्वी पर अवतार इसलिए भी लेते हैं कि देवलोक में सत्संग उपलब्ध नहीं होता है अतऐसे सत्संग में हमारे स्वामीजी ईश्वर अवतार के रुप में विराजमान रहते हैं। उस समय जो भी उनके दर्शन करता है। वह स्वामीजी को ईश्वर का स्वरुप ही पाता है । ऐसे परम पूज्यनीय श्रदेय स्वामीजी के चरणों में मेरा कोटि नमन।
तीरथ का है एक फलसंत मिले फल चार ।
सदगुरु मिले अनंत फलकहत कबीर विचार ॥
स्वामी प्रीतम का जगत में सदा रहेगा नाम।
भक्तों के स्वामीजी से सदा होगे पूर्ण काम ॥

” बालक भगूराम से भाई प्रीतमदास बने – बाबा प्रीतमदास जी’ “